दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई ।
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई ।
पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई ।
फिर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुग़ालता है कोई ।
देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई।
जैसे एहसान उतारता है कोई ।
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई ।
पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई ।
फिर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुग़ालता है कोई ।
देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई।