सोमवार, 9 नवंबर 2015

प्रियतम - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

एक दिन विष्‍णुजी के पास गए नारद जी,
पूछा, "मृत्‍युलोक में कौन है पुण्‍यश्‍यलोक
भक्‍त तुम्‍हारा प्रधान?" 

विष्‍णु जी ने कहा, "एक सज्‍जन किसान है
प्राणों से भी प्रियतम।"
"उसकी परीक्षा लूँगा", हँसे विष्‍णु सुनकर यह,
कहा कि, "ले सकते हो।"

नारद जी चल दिए
पहुँचे भक्‍त के यहॉं
देखा, हल जोतकर आया वह दोपहर को,
दरवाज़े पहुँचकर रामजी का नाम लिया,
स्‍नान-भोजन करके
फिर चला गया काम पर।
शाम को आया दरवाज़े फिर नाम लिया,
प्रात: काल चलते समय
एक बार फिर उसने 
मधुर नाम स्‍मरण किया।

"बस केवल तीन बार?"
नारद चकरा गए-
किन्‍तु भगवान को किसान ही यह याद आया?
गए विष्‍णुलोक
बोले भगवान से
"देखा किसान को
दिन भर में तीन बार
नाम उसने लिया है।"

बोले विष्‍णु, "नारद जी,
आवश्‍यक दूसरा 
एक काम आया है
तुम्‍हें छोड़कर कोई
और नहीं कर सकता।
साधारण विषय यह।
बाद को विवाद होगा,
तब तक यह आवश्‍यक कार्य पूरा कीजिए
तैल-पूर्ण पात्र यह
लेकर प्रदक्षिणा कर आइए भूमंडल की
ध्‍यान रहे सविशेष
एक बूँद भी इससे 
तेल न गिरने पाए।"

लेकर चले नारद जी
आज्ञा पर धृत-लक्ष्‍य
एक बूँद तेल उस पात्र से गिरे नहीं।
योगीराज जल्‍द ही
विश्‍व-पर्यटन करके
लौटे बैकुंठ को
तेल एक बूँद भी उस पात्र से गिरा नहीं
उल्‍लास मन में भरा था
यह सोचकर तेल का रहस्‍य एक
अवगत होगा नया।
नारद को देखकर विष्‍णु भगवान ने
बैठाया स्‍नेह से
कहा, "यह उत्‍तर तुम्‍हारा यही आ गया
बतलाओ, पात्र लेकर जाते समय कितनी बार 
नाम इष्‍ट का लिया?"

"एक बार भी नहीं।"
शंकित हृदय से कहा नारद ने विष्‍णु से
"काम तुम्‍हारा ही था
ध्‍यान उसी से लगा रहा
नाम फिर क्‍या लेता और?"
विष्‍णु ने कहा, "नारद
उस किसान का भी काम 
मेरा दिया हुया है।
उत्तरदायित्व कई लादे हैं एक साथ
सबको निभाता और
काम करता हुआ
नाम भी वह लेता है
इसी से है प्रियतम।"
नारद लज्जित हुए
कहा, "यह सत्‍य है।"

तुम हमारे हो - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

नहीं मालूम क्यों यहाँ आया
ठोकरें खाते हु‌ए दिन बीते।
उठा तो पर न सँभलने पाया
गिरा व रह गया आँसू पीते।

ताब बेताब हु‌ई हठ भी हटी
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया।
देखा तो थी माया की डोर कटी
सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया।

पर अहो पास छोड़ आते ही
वह सब भूत फिर सवार हु‌ए।
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही
फिर वही पहले के से वार हु‌ए।

एक भी हाथ सँभाला न गया
और कमज़ोरों का बस क्या है।
कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया,
मुझे दुख देने में जस क्या है।

रात को सोते यह सपना देखा
कि वह कहते हैं "तुम हमारे हो
भला अब तो मुझे अपना देखा,
कौन कहता है कि तुम हारे हो।

अब अगर को‌ई भी सताये तुम्हें
तो मेरी याद वहीं कर लेना
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें
प्रेम के भाव तुरत भर लेना"।

लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो,
भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा।
उन्ही बीजों को नये पर लगे,
उन्ही पौधों से नया रस झिरा।

उन्ही खेतों पर गये हल चले,
उन्ही माथों पर गये बल पड़े,
उन्ही पेड़ों पर नये फल फले,
जवानी फिरी जो पानी फिरा।

पुरवा हवा की नमी बढ़ी,
जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी,
सविता ने क्या कविता पढ़ी,
बदला है बादलों से सिरा।

जग के अपावन धुल गये,
ढेले गड़ने वाले थे घुल गये,
समता के दृग दोनों तुल गये,
तपता गगन घन से घिरा।

केशर की कलि की पिचकारी - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

केशर की, कलि की पिचकारीः
पात-पात की गात सँवारी ।

राग-पराग-कपोल किए हैं,
लाल-गुलाल अमोल लिए हैं
तरू-तरू के तन खोल दिए हैं,
आरती जोत-उदोत उतारी-
गन्ध-पवन की धूप धवारी ।

गाए खग-कुल-कण्ठ गीत शत,
संग मृदंग तरंग-तीर-हत
भजन-मनोरंजन-रत अविरत,
राग-राग को फलित किया री-
विकल-अंग कल गगन विहारी ।

भिक्षुक - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

वह आता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता 
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!
वह आता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता 
पथ पर आता।

अभी न होगा मेरा अन्त - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त

हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात!

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर

पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,

द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त।

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,

मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;
अभी न होगा मेरा अन्त।