मंगलवार, 15 सितंबर 2015

अक्सर मुझको अपने - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

अक्सर मुझको अपने से ही डर लगता है
अपना ही व्यवहार बहुत बर्बर लगता है

बेजाना पहचाना अपना घर लगता है
रिश्तों का ये राजमहल खँडहर लगता है

तन अपनी ही बस्ती का दुत्कारा जोगी
मन परदेशी-वन का राजकुँवर लगता है

इतनी तेज़ हवाएँ आँगन में घुस आईं
पूरा घर दरवाजे से बाहर लगता है

जब उन्मुक्त बज़ारों की बातें होती हैं
अपना छोटा-सा छप्पर अम्बर लगता है

आवारा मौसम की मनमानी के चलते
मधुमासों में भी मुझको पतझर लगता है

सुनकर कर्मफलों की उलटी-सीधी बातें
क़िस्मत का लेखा बस आडम्बर लगता है।

होनी अनहोनी की इस खींचातानी में
अपना होना भी बस एक ख़बर लगता है

मज़हब के मतभेदों, संघर्षों में उलझा
अपनी रचना से रूठा ईश्वर लगता है

बात तो कुछ भी नहीं - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

बात तो कुछ भी नहीं फिर
मन अकारण खिन्न क्यों है !

राह में रोशनी है, और मंज़िल पर दिवाली
सामने बाज़ार बिखरा, जेब भी अपनी न खाली
आहटों की हाट में, हूँ मैं न विक्रेता न क्रेता
शब्द के व्यापार में, मन मौन की करता दलाली
क्या हुआ यह आज का दिन
सब दिनों, से भिन्न क्यों है !

मन-पटल पर कौधती हैं इन्द्रधनुषी कल्पनाएँ
और गत-यौवन हुइंर् अब तक न मन की वासनाएँ
मैं वही हूँ भोर-रैन वही, जल थल गगन है जग रहा मैं, सो गईं कैसे सकल संवेदनाएँ
आज बोतल से व्यथा का
निकल आया जिन्न क्यों है !

लग रहा है तृप्ति को अब ऊब सी होने लगी है
और यह मधु-यामिनी बस चन्द्र घड़ियों की सागी है
प्रीति धन सम्मान बल वैभव सभी तन पर लपेटे
मन विकल है, प्राण की हर पोर पीड़ा में पागी है
आज हर विश्वास, आस्था
चेतना से छिन्न क्यों हैं !

न धरती पर - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

न धरती पर न नभ में अब कहीं कोई हमारा है
हमारी बेबसी ने आज फिर किसको पुकारा है |

हमें तक़दीर तूने उम्र भर धोखे किये हरदम
वहीं पानी मिला गहरा, जहाँ समझे किनारा है |

भुला बैठे थे हम तुमको, तुम्हारी बेवफ़ाई को
मगर महफ़िल में देखो आज फिर चर्चा तुम्हारा है |

वो पछुआ हो कि पुरवा, गर्म आँधी सी लगी हमको
कभी शीतल हवाओं ने कहाँ हमको दुलारा है |

बड़ा अहसान होगा ज़िंदगी इतना तो बतला दे
वो हममें क्या कमी है जो नहीं तुझको गवारा है |

हमें जो चैन से जीने नहीं देती तेरी दुनिया
ये उसकी अपनी मर्जी है, कि फिर तेरा इशारा है |

गिला, शिकवा, शिकायत हम करें भी तो करें किससे
हमें तो सिर्फ अपने हौसले का ही सहारा है |

नहीं, अब कुछ - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

नहीं, अब कुछ नहीं है जिंद़गी में
जियें तो क्यों जियें हम बेबसी में |

बहुत झेली ज़लालत सिर झुकाकर
न अब सिजदा करेंगे बन्दगी में |

ये मौसम का है कैसा दोगलापन
घुली देखी अमावस चाँदनी में |

वो जो दो चार साये थे चमन में
घिरे हैं धूप की आवारगी में |

मुखौटों में छुपे हैं सारे चेहरे
नहीं अब भेद कुछ नेकी-बदी में |

हमारे साथ थे जो सुख-सदन में
कहाँ हैं लोग वे इस त्रासदी में |

चलो उस पार को भी देख ही लें
पराग इस पार सब डूबा नदी में |

सर पे छत - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

सर पे छत, पाँवों तले हो बस गुज़ारे भर ज़मीन
काश हो हर आदमी को सिर्फ इतना सा यक़ीन |

मुझसे जो आँखें मिलाकर मुस्कुरा दे एक बार
क्या कहीं पर भी नहीं है वो ख़ुशी, वो नाज़नीन |

जो बड़ी मासूमियत से छीन लेता है क़रार
उसके सीने में धड़कता दिल है या कोई मशीन |

पूछती रहती है मुझसे रोज़ नफ़रत की नज़र
कब तलक देखा करोगे प्यार के सपने हसीन |

वक़्त की कारीगरी को कैसे समझोगे पराग
अक़्ल मोटी है तुम्हारी, काम उसका है महीन |

आदमी खुद - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

आदमी ख़ुद से डर गया होगा
वहशते-दिल से मर गया होगा |

मुझ में इक आदमी भी रहता था
राम जाने किधर गया होगा |

कितना ख़ामोश अब समंदर है
ज्वार बदनाम कर गया होगा |

मोम पाषाण हो गया आख़िर
प्यार हद से गुज़र गया होगा |

आपको अपने सामने पाकर
आइना ख़ुद सँवर गया होगा |

उसने इंसानियत से की तौबा
सब्र का जाम भर गया होगा |

तुम कहाँ थे पराग अब तक तो
रंगे-महफ़िल उतर गया होगा |

उलझनों को मैं - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

उलझनों को मैं अगर न मानूँ तो
हथकड़ी को बंधन न मानूँ तो |

दुश्मनी के जाल बुनने पर तुली दुनिया
दुश्मनों को मैं अगर दुश्मन न मानूँ तो |

ज़िंदगी में धूप भी है, चाँदनी भी है
चाँदनी को रेशमी चन्दन न मानूँ तो |

लोग कहते हैं मिलन है प्यार की मंज़िल
मैं मिलन को प्रीति का दर्पण न मानूँ तो |

कह रहे मुझको ख़ुदा, कुछ गर्ज़ के मारे
मैं खुश़ामद को अगर वन्दन न मानूँ तो |

मान लेता हूँ कि बाज़ी हार बैठा, पर
हार को मैं जीत का अर्पण न मानूँ तो |

ठीक है ये दर्द तुमने ही दिया मुझको
पर तम्हें मैं दर्द का कारण न मानूँ तो |

जिसने सागर मथ दिये, पर्वत हिला डाले
मैं उसी तूफ़ान को भीषण न मानूँ तो |

दे रहे हो तुम खुले बाज़ार का नारा
मैं तुम्हारी बात जन-गण-मन न मानूँ तो |

जैसे हो वैसे ही - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

कोई भी गुण अवगुण आरोपित मत करना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

मंज़िल तक एक भी नहीं पहुँची
कहने को कई-कई राहें थीं
मन में थी आग-सी लगी, तन के
पास बहुत पनघट की बाँहें थीं
मत रखना कोई उम्मीद घिरे बादल से
ऊसर की आँखों का पंचामृत पी लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

नग्न देवताओं का चित्रण ही
मानक है आधुनिक कलाओं का
बाजारों में जो बिक सकती हैं
रास ही है झूठ उन कथाओं का
रास जो न आये, नव-संस्कृति का यह दर्शन
देखना न सुनना, निज अधरों को सी लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

शंखनाद जिनको करना था वे
हैं तोता-मैना से सम्वादी
करनी की पत्रावलियाँ कोरी
कथनी की ढपली है फौलादी
कस लेना सौदे के सत्य को कसौटी पर
पीतल को पीतल के दामों में ही लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

आगाज हो न पाया - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

आगाज हो न पाया, अंजाम हो रहा है
सिर पैर हो न जिसका, वह काम हो रहा है |

दो-चार बूँद पानी क्या ले लिया नदी से
हर सिम्त समन्दर में कोहराम हो रहा है |

कुछ आम रास्तों की तकदीर बस सफर है
कुछ खास मंजिलों पर आराम हो रहा है |

इस पार भी है गुलशन, उस पार भी चमन है
सामान किस शहर का, नीलाम हो रहा है |

पाताल के अँधेरे, आकाश तक चढ़े हैं
चन्दा उदास, सूरज नाकाम हो रहा है |

कुछ लोग आइने को झूठा बता रहे हैं
सच का हरेक साया, बदनाम हो रहा है |

इस दौर में यही क्या कम है पराग साहब
अपराधियों में अपना भी नाम हो रहा है |

जो बड़े काम - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

जो बड़े काम किया करते हैं
वो कहाँ श्रेय लिया करते हैं |

नेकनामी से चुराते नज़रें
दाग सीने पे लिया करते हैं |

ख़ुदकुशी खुद़ नहीं करता कोई
लोग मजबूर किया करते हैं |

दम हवाओं का यहाँ घुटता है
किस तरह लोग जिया करते  |हैं

प्यास उनकी भी कहाँ बुझाती है
जो सुबह शाम पिया करते हैं |

आपकी बददुआ के बदले हम
चन्द अशआर दिया करते है |

लोग डरते हैं जहाँ जाने से
हम उसी ठौर ठिया करते हैं |

तुझसे मागूँ और - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

तुझसे मागूँ और कम मागूँ
पोर भर रहमो-करम मागूँ

तुझको जो देना है, जी भर दे
मैं कहाँ तक दम-ब-दम मागूँ |

अजनबी है राह, मंज़िल दूर
हमसफ़र कितने क़दम मागूँ |

हाथ की अंधी लकीरों से
रोशनी मागूँ, कि तम मागूँ |

मैं बहुत दुविधा में हूँ यारब
तुझको मागूँ, या सनम मागूँ |

जो नहीं मिलनी मेहरबानी
क्यों न फिर जुल़्मों-सितम मा |गूँ

या खुद़ा, यूँ इम्तहाँ मत ले
मैं खुश़ी मागूँ न गम़ मागूँ |

अपनी-अपनी बात - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

अपनी-अपनी बात कह कर उठ गये महफ़िल से लोग
दूसरों की जो सुने, मिलते हैं वो मुश्किल से लोग |

तैरने वाले की जय-जयकार दोनों पार से
देखते हैं डूबने वाले को चुप साहिल से लोग |

आदमी जो भी वहाँ पहुँचा वो जीते जी मरा
हादसा यह देखकर डरने लगे मंज़िल से लोग |

जान भी देने की बातें यूँ तो होती हैं यहाँ
पर दुआएँ तक कभी देते नहीं हैं दिल से लोग |

इससे भी बढ़कर तमाशा और क्या होगा पराग
पूछते हैं ज़िंदगी की कैफ़ियत क़ातिल से लोग |

उजाला जब भी आया - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

उजाला जब भी आया इस गली में
लगा ठहरा है सूरज बेबसी में

कभी तो होश में भी याद करते
पुकारा तुमने बस बेखुदी में

अगर वो रूठकर जाता तो जाता
गया वो झूमता गाता खुशी में

हजारों शाप लेकर, सोचता हूँ
दुआ भी है कहीं क्या जिन्दगी में

कहाँ मालूम था शीतल हवा को
वो डूबेगी पसीने की नदी में

खुदा का खौफ गर बाकी रहा तो
मज़ा आया कहाँ फिर मैकशी में

बफा, ईमान, सच्चाई, मोहब्बत
नहीं, तो फिर बचा क्या जिन्दगी में।

गीत कविता का हृदय है - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

हम अछांदस आक्रमण से, छंद को डरने न देंगे
युग-बयार बहे किसी विधि, गीत को मरने न देंगे

गीत भू की गति, पवन की लय, अजस्त्र प्रवाहमय है
पक्षियों का गान, लहर विधान, निर्झर का निलय है
गीत मुरली की मधुर ध्वनि, मंद्र सप्तक है प्रकृति का
नवरसों की आत्मा है, गीत कविता का हृदय है
बेसुरे आलाप को, सुर का हरण करने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

शब्द संयोजन सृजन में, गीत सर्वोपरि अचर है
जागरण का शंख, संस्कृति-पर्व का पहला प्रहर है
गीत का संगीत से संबंध शाश्वत है, सहज है
वेदना की भीड़ में, संवेदना का स्वर मुखर है
स्नेह के इस राग को, वैराग्य हम वरने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

गीत हैं सौंदर्य, शिव साकार, सत् का आचरण है
गीत वेदों, संहिताओं के स्वरों का अवतरण है
नाद है यह ब्रह्रम का, संवाद है माँ भारती का
गीत वाहक कल्पना का, भावनाओं का वरण है
गीत-तरु का विकच कोई पुष्प हम झरने न देंगे
गीत को मरने न देंगे।

जहाँ चलना मना है - ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

 जहाँ चलना मना है
वही इक रास्ता है
तुम्हें जो पूछता, वो
क्या खुद को जानता है!
सुबह कैसी, अभी तो
ये मयखाना खुला है
ये कहना तो ग़लत है
कि हर ग़लती खता है!
यहाँ शैतान है जो
कहीं वह देवता है
उधर सोने की खानें
इधर ताज़ी हवा है!
न जिसने हार मानी
वही तो जीतता है
झुकाकर सिर जिया जो
वो जीते जी मरा है!
'पराग' अब कुछ न कहना
बचा कहने को क्या है!