मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३७

सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त । 
ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥ 

आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान । 
हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥ 

आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर । 
शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥ 

यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय । 
कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥ 

कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस । 
सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥ 

साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह । 
इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥ 

साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय । 
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥ 

सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ । 
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥ 

आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच । 
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥ 

साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब । 
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥ 

सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय । 
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥ 

हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय । 
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥ 

साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग । 
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥ 

सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग । 
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥ 

॥ भेष के विषय मे दोहे ॥ 

चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । 
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ 

बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । 
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ 

साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । 
बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ 

तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । 
सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ 

जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । 
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ 

शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । 
क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ 

गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । 
कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ 

पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । 
तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ 

गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । 
कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ 

मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । 
तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ 

भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । 
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ३६

निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । 
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ 

मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान । 
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ 

और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय । 
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ 

जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं । 
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ 

इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय । 
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ 

शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय । 
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ 

कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । 
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ 

सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत । 
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ 

कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं । 
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ 

बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय । 
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ 

बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय । 
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ 

एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । 
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ 

जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय । 
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ 

उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । 
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ 

तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल । 
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ 

तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल । 
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ 

ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर । 
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ 

आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं । 
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ 

जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि । 
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ 

कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं । 
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ 

सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । 
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ 

सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । 
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥ 

संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय । 
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ 

मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त । 
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ 

दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव । 
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ३५

क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान । 
वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥ 

जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप । 
जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥ 

साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड । 
सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥ 

कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय । 
कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥ 

आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद । 
षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥ 

कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय । 
जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥ 

वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस । 
गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥ 

सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान । 
शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥ 

साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं । 
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥ 

साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार । 
डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥ 

साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । 
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥ 

साधु चाल जु चालई, साधु की चाल । 
बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥ 

साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल । 
परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥ 

साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास । 
टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥ 

साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि । 
अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥ 

साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट । 
माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591 

साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत । 
कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥ 

साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ । 
सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥ 

साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय । 
न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥ 

साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर । 
शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥ 

सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार । 
आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥ 

दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप । 
उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥ 

सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय । 
छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥ 

साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक । 
बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥ 

सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात । 
निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ३४

छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय । 
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥ 

मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त । 
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥ 

मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि । 
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥ 

साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान । 
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥ 

इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय । 
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥ 

खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय । 
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥ 

सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि । 
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥ 

कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय । 
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥ 

टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर । 
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥ 

कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि । 
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥ 

साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह । 
माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥ 

साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय । 
मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥ 

साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन । 
धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥ 

साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर । 
सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥ 

साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट । 
शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥ 

साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार । 
जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥ 

साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग । 
तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥ 

आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय । 
कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥ 

छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय । 
जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥ 

सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह । 
परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥ 

बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर । 
परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥ 

सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध । 
कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥ 

साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव । 
चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥ 

कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल । 
कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥ 

हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि । 
तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ३४

साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग । 
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥ 

शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार । 
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥ 

कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय । 
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥ 

साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय । 
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥ 

साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय । 
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥ 

कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय । 
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥ 

संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ । 
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥ 

साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान । 
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥ 

टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि । 
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥ 

साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है । 
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥ 

निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार । 
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥ 

हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो । 
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥ 

खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय । 
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥ 

घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास । 
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥ 

आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल । 
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥ 

कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय । 
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥ 

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय । 
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥ 

कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि । 
ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥ 

कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय । 
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥ 

दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय । 
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥ 

तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय । 
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥ 

दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार । 
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥ 

बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय । 
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥ 

पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय । 
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥ 

बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष । 
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ३३

जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । 
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥ 

गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । 
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ 

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । 
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥ 

बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय । 
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥ 

गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग । 
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥ 

गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर । 
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥ 

कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । 
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥ 

॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ 


शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । 
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥ 

हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय । 
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥ 

ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक । 
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥ 

शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय । 
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥ 

स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय । 
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥ 

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । 
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥ 

सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय । 
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥ 

देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल । 
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥ 

॥ भक्ति के विषय में दोहे ॥ 


कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय । 
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय । 
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥ 

जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात । 
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥ 

चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं । 
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥ 

हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह । 
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥ 

झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह । 
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥ 

कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार । 
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥ 

कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय । 
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ 

पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज । 
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥ 

कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार । 
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥