शनिवार, 28 नवंबर 2015

कौन? - सोहनलाल द्विवेदी

किसने बटन हमारे कुतरे?
किसने स्‍याही को बिखराया?
कौन चट कर गया दुबक कर
घर-भर में अनाज बिखराया?

दोना खाली रखा रह गया
कौन ले गया उठा मिठाई?
दो टुकड़े तसवीर हो गई
किसने रस्‍सी काट बहाई?

कभी कुतर जाता है चप्‍प्ल 
कभी कुतर जूता है जाता,
कभी खलीता पर बन आती
अनजाने पैसा गिर जाता

किसने जिल्‍द काट डाली है?
बिखर गए पोथी के पन्‍ने।
रोज़ टाँगता धो-धोकर मैं
कौन उठा ले जाता छन्‍ने?

कुतर-कुतर कर कागज़ सारे
रद्दी से घर को भर जाता।
कौन कबाड़ी है जो कूड़ा
दुनिया भर का घर भर जाता?

कौन रात भर गड़बड़ करता?
हमें नहीं देता है सोने,
खुर-खुर करता इधर-उधर है
ढूँढा करता छिप-छिप कोने? 

रोज़ रात-भर जगता रहता
खुर-खुर इधर-उधर है धाता
बच्‍चों उसका नाम बताओ
कौन शरारत यह कर जाता?

प्रकृति संदेश - सोहनलाल द्विवेदी

पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।

समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी मीठी मृदुल उमंग!

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार!

मातृभूमि - सोहनलाल द्विवेदी

ऊँचा खड़ा हिमालय 
आकाश चूमता है, 
नीचे चरण तले झुक, 
नित सिंधु झूमता है। 

गंगा यमुन त्रिवेणी 
नदियाँ लहर रही हैं, 
जगमग छटा निराली 
पग पग छहर रही है। 

वह पुण्य भूमि मेरी, 
वह स्वर्ण भूमि मेरी। 
वह जन्मभूमि मेरी 
वह मातृभूमि मेरी। 

झरने अनेक झरते 
जिसकी पहाड़ियों में, 
चिड़ियाँ चहक रही हैं, 
हो मस्त झाड़ियों में। 

अमराइयाँ घनी हैं 
कोयल पुकारती है, 
बहती मलय पवन है, 
तन मन सँवारती है। 

वह धर्मभूमि मेरी, 
वह कर्मभूमि मेरी। 
वह जन्मभूमि मेरी 
वह मातृभूमि मेरी। 

जन्मे जहाँ थे रघुपति, 
जन्मी जहाँ थी सीता, 
श्रीकृष्ण ने सुनाई, 
वंशी पुनीत गीता। 

गौतम ने जन्म लेकर, 
जिसका सुयश बढ़ाया, 
जग को दया सिखाई, 
जग को दिया दिखाया। 

वह युद्ध–भूमि मेरी, 
वह बुद्ध–भूमि मेरी। 
वह मातृभूमि मेरी, 
वह जन्मभूमि मेरी।

आया वसंत आया वसंत - सोहनलाल द्विवेदी

आया वसंत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।

सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नये फूल

पल में पतझड़ का हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत।

लेकर सुगंध बह रहा पवन
हरियाली छाई है बन बन,
सुंदर लगता है घर आँगन

है आज मधुर सब दिग दिगंत
आया वसंत आया वसंत।

भौरे गाते हैं नया गान,
कोकिला छेड़ती कुहू तान
हैं सब जीवों के सुखी प्राण,

इस सुख का हो अब नही अंत
घर-घर में छाये नित वसंत।

गिरिराज - सोहनलाल द्विवेदी

यह है भारत का शुभ्र मुकुट 
यह है भारत का उच्च भाल, 
सामने अचल जो खड़ा हुआ 
हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल! 

कितना उज्ज्वल, कितना शीतल 
कितना सुन्दर इसका स्वरूप? 
है चूम रहा गगनांगन को 
इसका उन्नत मस्तक अनूप! 

है मानसरोवर यहीं कहीं 
जिसमें मोती चुगते मराल, 
हैं यहीं कहीं कैलास शिखर 
जिसमें रहते शंकर कृपाल! 

युग युग से यह है अचल खड़ा 
बनकर स्वदेश का शुभ्र छत्र! 
इसके अँचल में बहती हैं 
गंगा सजकर नवफूल पत्र! 

इस जगती में जितने गिरि हैं 
सब झुक करते इसको प्रणाम, 
गिरिराज यही, नगराज यही 
जननी का गौरव गर्व–धाम! 

इस पार हमारा भारत है, 
उस पार चीन–जापान देश 
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में 
एशिया खंड का यह नगेश!

बढे़ चलो, बढे़ चलो - सोहनलाल द्विवेदी

न हाथ एक शस्त्र हो, 
न हाथ एक अस्त्र हो, 
न अन्न वीर वस्त्र हो, 
हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो । 

रहे समक्ष हिम-शिखर, 
तुम्हारा प्रण उठे निखर, 
भले ही जाए जन बिखर, 
रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

घटा घिरी अटूट हो, 
अधर में कालकूट हो, 
वही सुधा का घूंट हो, 
जिये चलो, मरे चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

गगन उगलता आग हो, 
छिड़ा मरण का राग हो,
लहू का अपने फाग हो, 
अड़ो वहीं, गड़ो वहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

चलो नई मिसाल हो, 
जलो नई मिसाल हो,
बढो़ नया कमाल हो,
झुको नही, रूको नही, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

अशेष रक्त तोल दो, 
स्वतंत्रता का मोल दो, 
कड़ी युगों की खोल दो, 
डरो नही, मरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।