सोमवार, 2 नवंबर 2015

बस इतना--अब चलना होगा - भगवतीचरण वर्मा

बस इतना--अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें।

कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान न पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;
पर इसका दुख क्या? मिल न सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें।

तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे।

तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे।

सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें
अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ न पाईं जीवन को
जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें।

था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।
फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये।

मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम - भगवतीचरण वर्मा

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम
ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम,
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।
तेरे उर में शायित गांधी, 'बुद्ध औ' राम,
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक,
तेरे चरण चूमता सागर,
श्वासों में हैं वेद-ऋचाएँ
वाणी में है गीता का स्वर।
ऐ संसृति की आदि तपस्विनि, तेजस्विनि अभिराम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

हरे-भरे हैं खेत सुहाने,
फल-फूलों से युत वन-उपवन,
तेरे अंदर भरा हुआ है
खनिजों का कितना व्यापक धन।
मुक्त-हस्त तू बाँट रही है सुख-संपत्ति, धन-धाम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

प्रेम-दया का इष्ट लिए तू,
सत्य-अहिंसा तेरा संयम,
नयी चेतना, नयी स्फूर्ति-युत
तुझमें चिर विकास का है क्रम।
चिर नवीन तू, ज़रा-मरण से -
मुक्त, सबल उद्दाम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

एक हाथ में न्याय-पताका,
ज्ञान-द्वीप दूसरे हाथ में,
जग का रूप बदल दे हे माँ,
कोटि-कोटि हम आज साथ में।
गूँज उठे जय-हिंद नाद से -
सकल नगर औ' ग्राम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

देखो-सोचो-समझो - भगवतीचरण वर्मा

देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ' जानो
इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो,
जीवन की धारा में अपने को बहने दो

तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो ।

वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो
ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो

बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो ।

पल में रो देते हो, पल में हँस पड़ते हो,
अपने में रमकर तुम अपने से लड़ते हो
पर यह सब तुम करते - इस पर मुझको शक है,
दर्शन, मीमांसा - यह फुरसत की बकझक है,

जमने की कोशिश में रोज़ तुम उखड़ते हो ।

थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में,
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में,
ज़िन्दगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है,
इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है

दोस्त उम्र कटने दो इस तमाशबीनी में ।

धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो
कडु‌आ या मीठा ,रस तो है छक कर छानो,
चलने का अन्त नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है

जब-जब थक कर उलझो, तब-तब लम्बी तानो ।

आज मानव का सुनहला प्रात है - भगवतीचरण वर्मा

आज मानव का सुनहला प्रात है,
आज विस्मृत का मृदुल आघात है;
आज अलसित और मादकता-भरे,
सुखद सपनों से शिथिल यह गात है;

मानिनी हँसकर हृदय को खोल दो,
आज तो तुम प्यार से कुछ बोल दो ।

आज सौरभ में भरा उच्छ्‌वास है,
आज कम्पित-भ्रमित-सा बातास है;
आज शतदल पर मुदित सा झूलता,
कर रहा अठखेलियाँ हिमहास है;

लाज की सीमा प्रिये, तुम तोड दो
आज मिल लो, मान करना छोड दो ।

आज मधुकर कर रहा मधुपान है,
आज कलिका दे रही रसदान है;
आज बौरों पर विकल बौरी हुई,
कोकिला करती प्रणय का गान है;

यह हृदय की भेंट है, स्वीकार हो
आज यौवन का सुमुखि, अभिसार हो ।

आज नयनों में भरा उत्साह है,
आज उर में एक पुलकित चाह है;
आज श्चासों में उमड़कर बह रहा,
प्रेम का स्वच्छन्द मुक्त प्रवाह है;

डूब जायें देवि, हम-तुम एक हो
आज मनसिज का प्रथम अभिषेक हो ।

हम दीवानों की क्या हस्ती - भगवतीचरण वर्मा


हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले


आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले


किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले


दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख-दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले


हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले


हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले


अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले

पतझड़ के पीले पत्तों ने - भगवतीचरण वर्मा

पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
"लो टूट चुका बन्धन मेरा!"
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !

तुम अपनी हो, जग अपना है - भगवतीचरण वर्मा

तुम अपनी हो, जग अपना है
किसका किस पर अधिकार प्रिये
फिर दुविधा का क्या काम यहाँ
इस पार या कि उस पार प्रिये।

देखो वियोग की शिशिर रात
आँसू का हिमजल छोड़ चली
ज्योत्स्ना की वह ठण्डी उसाँस
दिन का रक्तांचल छोड़ चली।

चलना है सबको छोड़ यहाँ
अपने सुख-दुख का भार प्रिये,
करना है कर लो आज उसे
कल पर किसका अधिकार प्रिये।

है आज शीत से झुलस रहे
ये कोमल अरुण कपोल प्रिये
अभिलाषा की मादकता से
कर लो निज छवि का मोल प्रिये।

इस लेन-देन की दुनिया में
निज को देकर सुख को ले लो,
तुम एक खिलौना बनो स्वयं
फिर जी भर कर सुख से खेलो।

पल-भर जीवन, फिर सूनापन
पल-भर तो लो हँस-बोल प्रिये
कर लो निज प्यासे अधरों से
प्यासे अधरों का मोल प्रिये।

सिहरा तन, सिहरा व्याकुल मन,
सिहरा मानस का गान प्रिये
मेरे अस्थिर जग को दे दो
तुम प्राणों का वरदान प्रिये।

भर-भरकर सूनी निःश्वासें
देखो, सिहरा-सा आज पवन
है ढूँढ़ रहा अविकल गति से
मधु से पूरित मधुमय मधुवन।

यौवन की इस मधुशाला में
है प्यासों का ही स्थान प्रिये
फिर किसका भय? उन्मत्त बनो
है प्यास यहाँ वरदान प्रिये।

देखो प्रकाश की रेखा ने
वह तम में किया प्रवेश प्रिये
तुम एक किरण बन, दे जाओ
नव-आशा का सन्देश प्रिये।

अनिमेष दृगों से देख रहा
हूँ आज तुम्हारी राह प्रिये
है विकल साधना उमड़ पड़ी
होंठों पर बन कर चाह प्रिये।

मिटनेवाला है सिसक रहा
उसकी ममता है शेष प्रिये
निज में लय कर उसको दे दो
तुम जीवन का सन्देश प्रिये।