सोमवार, 14 दिसंबर 2015

सदियों से इन्सान यह सुनता आया है - साहिर लुधियानवी

सदियों से इन्सान यह सुनता आया है
दुख की धूप के आगे सुख का साया है

हम को इन सस्ती ख़ुशियों का लोभ न दो
हम ने सोच समझ कर ग़म अपनाया है

झूठ तो कातिल ठहरा उसका क्या रोना
सच ने भी इन्सां का ख़ून बहाया है

पैदाइश के दिन से मौत की ज़द में हैं
इस मक़तल में कौन हमें ले आया है

अव्वल-अव्वल जिस दिल ने बरबाद किया
आख़िर-आख़िर वो दिल ही काम आया है

उतने दिन अहसान किया दीवानों पर
जितने दिन लोगों ने साथ निभाया है

सोचता हूँ - साहिर लुधियानवी

सोचता हूँ कि मुहब्बत से किनारा कर लूँ 
दिल को बेगाना-ए-तरग़ीब-ओ-तमन्ना कर लूँ 

सोचता हूँ कि मुहब्बत है जुनून-ए-रसवा 
चंद बेकार-से बेहूदा ख़यालों का हुजूम 
एक आज़ाद को पाबंद बनाने की हवस 
एक बेगाने को अपनाने की सइ-ए-मौहूम 
सोचता हूँ कि मुहब्बत है सुरूर-ए-मस्ती 
इसकी तन्वीर में रौशन है फ़ज़ा-ए-हस्ती 
सोचता हूँ कि मुहब्बत है बशर की फ़ितरत 
इसका मिट जाना, मिटा देना बहुत मुश्किल है 
सोचता हूँ कि मुहब्बत से है ताबिंदा हयात 
आप ये शमा बुझा देना बहुत मुश्किल है 

सोचता हूँ कि मुहब्बत पे कड़ी शर्त हैं 
इक तमद्दुन में मसर्रत पे बड़ी शर्त हैं 

सोचता हूँ कि मुहब्बत है इक अफ़सुर्दा सी लाश 
चादर-ए-इज़्ज़त-ओ-नामूस में कफ़नाई हुई 
दौर-ए-सर्माया की रौंदी हुई रुसवा हस्ती 
दरगह-ए-मज़हब-ओ-इख़्लाक़ से ठुकराई हुई 

सोचता हूँ कि बशर और मुहब्बत का जुनूँ 
ऐसी बोसीदा तमद्दुन से है इक कार-ए-ज़बूँ 

सोचता हूँ कि मुहब्बत न बचेगी ज़िंदा 
पेश-अज़-वक़्त की सड़ जाये ये गलती हुई लाश 
यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फ़त होकर 
अपने सीने में करूँ जज़्ब-ए-नफ़रत की तलाश 

और सौदा-ए-मुहब्बत से किनारा कर लूँ 
दिल को बेगाना-ए-तरग़ीब-ओ-तमन्ना कर लूँ 

मेरे गीत तुम्हारे हैं - साहिर लुधियानवी

अब तक मेरे गीतों में उम्मीद भी थी पसपाई भी
मौत के क़दमों की आहट भी, जीवन की अंगड़ाई भी
मुस्तकबिल की किरणें भी थीं, हाल की बोझल ज़ुल्मत भी
तूफानों का शोर भी था और ख्वाबों की शहनाई भी

आज से मैं अपने गीतों में आतश–पारे भर दूंगा
मद्धम लचकीली तानों में जीवन–धारे भर दूंगा
जीवन के अंधियारे पथ पर मशअल लेकर निकलूंगा
धरती के फैले आँचल में सुर्ख सितारे भर दूंगा
आज से ऐ मज़दूर-किसानों ! मेरे राग तुम्हारे हैं
फ़ाकाकश इंसानों ! मेरे जोग बिहाग तुम्हारे हैं
जब तक तुम भूके-नंगे हो, ये शोले खामोश न होंगे
जब तक बे-आराम हो तुम, ये नगमें राहत कोश न होंगे

मुझको इसका रंज नहीं है लोग मुझे फ़नकार न मानें
फ़िक्रों-सुखन के ताजिर मेरे शे’रों को अशआर न मानें
मेरा फ़न, मेरी उम्मीदें, आज से तुमको अर्पन हैं
आज से मेरे गीत तुम्हारे दुःख और सुख का दर्पन हैं

तुम से कुव्वत लेकर अब मैं तुमको राह दिखाऊँगा
तुम परचम लहराना साथी, मैं बरबत पर गाऊंगा
आज से मेरे फ़न का मकसद जंजीरें पिघलाना है
आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊंगा

किसी को उदास देख कर - साहिर लुधियानवी

तुम्हें उदास सा पाता हूँ मैं काई दिन से 
ना जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम 
वो शोख़ियाँ, वो तबस्सुम, वो कहकहे न रहे 
हर एक चीज़ को हसरत से देखती हो तुम 
छुपा छुपा के ख़मोशी में अपनी बेचैनी 
ख़ुद अपने राज़ की ताशीर बन गई हो तुम 

मेरी उम्मीद अगर मिट गई तो मिटने दो 
उम्मीद क्या है बस एक पास-ओ-पेश है कुछ भी नहीं 
मेरी हयात की ग़मग़ीनीओं का ग़म न करो 
ग़म हयात-ए-ग़म यक नक़्स है कुछ भी नहीं 
तुम अपने हुस्न की रानाईओं पर रहम करो 
वफ़ा फ़रेब तुल हवस है कुछ भी नहीं 

मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूं शिकायत हो 
मेरी फ़ना मीर एहसास का तक़ाज़ा है 
मैं जानता हूँ के दुनिया का ख़ौफ़ है तुम को 
मुझे ख़बर है ये दुनिया अजीब दुनिया है 
यहाँ हयात के पर्दे में मौत चलती है 
शिकस्त साज़ की आवाज़ में रू नग़्मा है 

मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं 
मेरे ख़याल की दुनिया में मेरे पास हो तुम 
ये तुम ने ठीक कह है तुम्हें मिला न करूँ 
मगर मुझे बता दो कि क्यूँ उदास हो तुम 
हफ़ा न हो मेरी जुर्रत-ए-तख़्तब पर 
तुम्हें ख़बर है मेरी ज़िंदगी की आस हो तुम 

मेरा तो कुछ भी नहीं है मैं रो के जी लूँगा 
मगर ख़ुदा के लिये तुम असीर-ए-ग़म न रहो 
हुआ ही क्या जो ज़माने ने तुम को छीन लिया 
यहाँ पर कौन हुआ है किसी का सोचो तो 
मुझे क़सम है मेरी दुख भरी जवानी की 
मैं ख़ुश हूँ मेरी मोहब्बत के फूल ठुकरा दो 

मैं अपनी रूह की हर एक ख़ुशी मिटा लूँगा 
मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता 
मैं ख़ूद को मौत के हाथों में सौंप सकता हूँ 
मगर ये बर-ए-मुसाइब उठा नहीं सकता 
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे 
निजात जिन से मैं एक लहज़ पा नहीं सकता 

ये ऊँचे ऊँचे मकानों की देवड़ीयों के बताना या कहना 
हर काम पे भूके भिकारीयों की सदा 
हर एक घर में अफ़्लास और भूक का शोर 
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका 
ये करख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिस में 
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा 

ये शरहों पे रंगीन साड़ीओं की झलक 
ये झोंपड़ियों में ग़रीबों के बे-कफ़न लाशें 
ये माल रोअद पे करों की रैल पैल का शोर 
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे 
गली गली में बिकते हुए जवाँ चेहरे 
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छाई हुई 

ये ज़ंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ 
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी 
ये बात बात पे कानून और ज़ब्ते की गिरफ़्त 
ये ज़ीस्क़ ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी 
ये ग़म हैं बहुत मेरी ज़िंदगी मिटाने को 
उदास रह के मेरे दिल को और रंज़ न दो 

उदास न हो - साहिर लुधियानवी

मेरे नदीम मेरे हमसफ़र उदास न हो
कठिन सही तेरी मन्जिल मगर उदास न हो

कदम कदम पे चट्टानें खडी़ रहें लेकिन
जो चल निकले हैं दरिया तो फिर नहीं रुकते
हवाएँ कितना भी टकराएँ आँधियाँ बनकर
मगर घटाओं के परछम कभी नहीं झुकते
मेरे नदीम मेरे हमसफ़र...

हर एक तलाश के रास्ते में मुश्किलें हैं मगर
हर एक तलाश मुरादों के रंग लाती है
हजारों चाँद सितारों का खून होता है
तब एक सुबह फ़िजाओं पे मुस्कुराती है
मेरे नदीम मेरे हमसफ़र...

जो अपने खून को पानी बना नहीं सकते
वो जिंदगी में नया रंग ला नहीं सकते
जो रास्ते के अँधेरों से हार जाते हैं
वो मंजिलों के उजाले को पा नहीं सकते
मेरे नदीम मेरे हमसफ़र...

अगर मौज है बीच धारे चला चल - 'हफ़ीज़' जालंधरी

अगर मौज है बीच धारे चला चल
वगरना किनारे किनारे चला चल

इसी चाल से मेरे प्यारे चला चल
गुज़रती है जैसे गुज़ारे चला चल

तुझे साथ देना है बहरूपियों का
नए से नया रूप धारे चला चल

ख़ुदा को न तकलीफ़ दे डूबने में
किसी नाख़ुदा के सहारे चला चल

पहुँच जाएँगे क़ब्र में पाँव तेरे
पसारे चला चल पसारे चला चल

ये ऊपर का तबक़ा ख़ला ही ख़ला है
हवा ओ हवस के ग़ुबारे चला चल

डुबोया है तू ने हया का सफ़ीना
मिरे दोस्त सीना उभारे चला चल

मुसलसल बुतों की तमन्ना किए जा
मुसलसल ख़ुदा को पुकारे चला चल

यहाँ तो बहर-ए-हाल झुकना पड़ेगा
नहीं तो किसी और द्वारे चला चल

तुझे तो अभी देर तक खेलना है
इसी में तो है जीत हारे चला चल

न दे फुर्सत-ए-दम-ज़दन ओ ज़माने
नए से नया तीर मारे चला चल

शब-ए-तार है ता-ब-सुब्ह-ए-क़यामत
मुकद्दर है गर्दिश सितारे चला चल

कहाँ से चला था कहाँ तक चलेगा
चला चला मसाफ़त के मारे चला चल

बसीरत नहीं है तो सीरत भी क्यूँ हो
फ़कत शक्ल ओ सूरत सँवारे चला चल

‘हफीज’ इस नए दौर में तुझ को फ़न का
नशा है तो प्यारे उतारे चला चल

क्यों हिज्र के शिकवे करता है - 'हफ़ीज़' जालंधरी

क्यों हिज्र के शिकवे करता है, क्यों दर्द के रोने रोता है?
अब इश्क किया है तो सब्र भी कर, इसमें तो यही कुछ होता है 

आगाज़-ए-मुसीबत होता है, अपने ही दिल की शरारत से 
आँखों में फूल खिलाता है, तलवो में कांटें बोता है 

अहबाब का शिकवा क्या कीजिये, खुद ज़ाहिर व बातें एक नहीं 
लब ऊपर ऊपर हँसतें है, दिल अंदर अंदर रोता है 

मल्लाहों को इलज़ाम न दो, तुम साहिल वाले क्या जानों 
ये तूफान कौन उठता है, ये किश्ती कौन डुबोता है 

क्या जाने क्या ये खोएगा, क्या जाने क्या ये पायेगा 
मंदिर का पुजारी जागता है, मस्जिद का नमाजी सोता है