बुधवार, 4 नवंबर 2015

भारतीय समाज - भवानीप्रसाद मिश्र

कहते हैं 
इस साल हर साल से पानी बहुत ज्यादा गिरा
पिछ्ले पचास वर्षों में किसी को 
इतनी ज्यादा बारिश की याद नहीं है ।

कहते हैं हमारे घर के सामने की नालियां
इससे पहले इतनी कभी नहीं बहीं
न तुम्हारे गांव की बावली का स्तर
कभी इतना ऊंचा उठा
न खाइयां कभी ऐसी भरीं , न खन्दक
न नरबदा कभी इतनी बढ़ी, न गन्डक ।

पंचवर्षीय योजनाओं के बांध पहले नहीं थे
मगर वर्षा में तब लोग एक गांव से दूर दूर के गांवों तक
सिर पर सामान रख कर यों टहलते नहीं थे
और फिर लोग कहते हैं 
जिंदगी पहले के दिनों की बड़ी प्यारी थी
सपने हो गये वे दिन जो रंगीनियों में आते थे
रंगीनियों में जाते थे
जब लोग महफिलों में बैठे बैठे 
रात भर पक्के गाने गाते थे
कम्बख़्त हैं अब के लोग, और अब के दिन वाले 
क्योंकि अब पहले से ज्यादा पानी गिरता है
और कम गाये जाते हैं पक्के गाने ।

और मैं सोचता हूँ, ये सब कहने वाले
हैं शहरों के रहने वाले 
इन्हें न पचास साल पहले खबर थी गांव की
न आज है
ये शहरों का रहने वाला ही
जैसे भारतीय समाज है ।

सुख का दुख - भवानीप्रसाद मिश्र

जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है, 
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ, 
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं।

यहां एक बात 
इससॆ भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर 
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,
मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें 
सिखा दूं कि सुख कोई डरने की चीज नहीं है।

मगर नहीं
मैंने देखा है कि जब कभी 
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाजार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है।

बल्कि कहना चाहिये 
खुशी झलकी है, डर छा गया है, 
उनका उठना उनका बैठना
कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह पाता,
और मुझे इतना दु:ख होता है देख कर
कि मैं उनसे कुछ कह नहीं पाता।

मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि बेटा यह सुख है,
इससे डरो मत बल्कि बेफिक्री से बढ़ कर इसे छू लो।
इस झूले के पेंग निराले हैं 
बेशक इस पर झूलो, 
मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते 
खड़े खड़े ताकते हैं, 
अगर कुछ सोचकर मैं उनको उसकी तरफ ढकेलता हूँ। 

तो चीख मार कर भागते हैं, 
बड़े बड़े सुखों की इच्छा 
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने उन्हें फोड़ दी है।

इसे जगाओ - भवानीप्रसाद मिश्र

भई, सूरज
ज़रा इस आदमी को जगाओ!
भई, पवन
ज़रा इस आदमी को हिलाओ!
यह आदमी जो सोया पड़ा है,
जो सच से बेखबर
सपनों में खोया पड़ा है।
भई पंछी,
इस‍के कोनों पर चिल्‍लओ!
भई सूरज! ज़रा इस आदमी को जगाओ,
वक्‍त पर जगाओ,
नहीं तो बेवक्‍त जगेगा यह
तो जो आगे निकल गए हैं
उन्‍हें पाने-
घबरा के भागेगा यह!
घबराना के भागना अलग है,
क्षिप्र गति अलग है,
क्षिप्र तो वह है
जो सही क्षण में सजग है।
सूरज, इसे जगाओ,
पवन, इसे हिलाओ,
पंछी, इसके कानों पर चिल्‍लाओ!

तुमने जो दिया है - भवानीप्रसाद मिश्र

तुमने जो दिया है वह सब
हवा है प्रकाश है पानी है
छन्द है गन्ध है वाणी है
उसी के बल पर लहराता हूँ
ठहरता हूँ बहता हूँ झूमता हूँ
चूमता हूँ जग जग के काँटे
आया है जो कुछ मेरे बाँटे
देखता हूँ वह तो सब कुछ है
सुख दु:ख लहरें हैं उसकी
मैं जो कहता हूँ
समय किसी स्टेनो की तरह
उसे शीघ्र लिपि में लिखता हूँ
और फिर आकर
दिखा जाता है मुझे
दस्तखत कर देता हूँ
कभी जैसा का तैसा उसे
विस्मृति के दराज में धर देता हूँ।
तुमने मुझे जो कुछ दिया है वह सब
हवा है प्रकाश है पानी है।

हम सब गाएँ - भवानीप्रसाद मिश्र

रात को या दिन को
अकेले में या मेले में
हम सब गुनगुनाते रहें
क्योंकि गुनगुनाते रहे हैं भौंरे
गुनगुना रही हैं मधुमक्खियाँ
नीम के फूलों को
चूसने की धुन में
और नीम के फूल भी महक रहे हैं
छोटे बड़े सारे पंछी चहक रहे हैं|

क्या हम कम हैं इनसे
अपने मन की धुन में
या रूप में या गुन में
सन गाएँ सब गुनगुनाएँ
झूमे नाचे आसमान सिर पर उठाएँ!

श्रम की महिमा - भवानीप्रसाद मिश्र

तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है
तुम व्यापारी
वह धरती में बीज गाड़ता है ।

एक आदमी घड़ी बनाता
एक बनाता चप्पल
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
इसमें क्या बल ।

सूत कातते थे गाँधी जी
कपड़ा बुनते थे ,
और कपास जुलाहों के जैसा ही
धुनते थे

चुनते थे अनाज के कंकर
चक्की पिसते थे
आश्रम के अनाज याने
आश्रम में पिसते थे

जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
उनको आता था
भंगी-काम सफाई से
नित करना भाता था ।

ऐसे थे गाँधी जी
ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे
पूजा के समान था श्रम ।

एक बार उत्साह-ग्रस्त
कोई वकील साहब
जब पहुँचे मिलने
बापूजी पीस रहे थे तब ।

बापूजी ने कहा - बैठिये
पीसेंगे मिलकर
जब वे झिझके
गाँधीजी ने कहा
और खिलकर

सेवा का हर काम
हमारा ईश्वर है भाई
बैठ गये वे दबसट में
पर अक्ल नहीं आई ।

ऐसा भी होगा - भवानीप्रसाद मिश्र

इच्छाए उमडती हैं
तो थक जाता हूँ,
कभी एकाध इच्छा
थोडा चलकर
तुम्हारे सिरहाने रख जाता हूँ।
जब तुम्हारी आंख
खुलती है,
तो तुम उसे देखकर
सोचती हो,
यह कोई चीज-
तुम्हारी इच्छा से
मिलती-जुलती है।
कभी ऐसा भी होगा?
जबमेरी क्लांति,
कोई भी इच्छातुम्हारे सिरहाने तक रखने
नहीं जाएगी,
तब,
वहां के खालीपन को देखकर,
शायद तुम्हें याद आएगी
अपनी इच्छा से मिलती-जुलती मेरी किसी इच्छा की।