मंगलवार, 12 जनवरी 2016

आज के दौर में जंगल उदास हैं - उमेश पंत

आज के दौर में जंगल उदास हैं
और वो लड़की जो बाघ की खाल से बना फरकोट पहनकर
शीशे में देख मुस्कुरा रही है
हमें जंगली-सी दिखती है।
पर ये उस दौर की बात है
जब जंगल उतने जंगली नहीं थे
न ही आदमी उतना शहरी ।
जब एक दहाड़ सुनाई देने पर
अक्सर कहते थे गाँव के लोग
कि बाघ आ गया ।
हम सुनते थे अपने पापा से बाघ के किस्से
कि कैसे उस रोज़ आया था बाघ
हमारे शेरा को ले जाने
और पापा ने किया था टौर्च लेकर पीछा
हम आज तक पापा के किस्से से उपजे
उस रोमांच को नहीं भूले हैं
जिसे याद कर सिहर जाती है रुह आज भी ।
उस रोज़ गाँव जाने पर ताऊजी ने बताया था
कि शेरा को बाघ ले गया
तो बहुत गुस्सा आया था बाघ पर ।
कल्पनाओं में तैरती-सी बही जाती थी
बाघ की छंलांगें
और जब तब सुनाई देती थीं
जंगलों को कँपा देती उसकी गर्जनाएँ ।
कैसे तो बाघ हो जाता था उस लमहे में
किस्सागोई का रोमांचकारी अनुभव ।

कि कैसे उस दिन
हमारे छोटे से कस्बे में
हुई थी बाघ पर विजय की वो यात्रा
आगे-आगे ट्रक पर लदा बाघ का पिंजरा
और पीछे-पीछे सैकड़ों की तादात में जुटे हुए लोग
अब तलक ज़िन्दा है हमारी आँख में
बाघ की निर्भय आँखों का वो अक्स ।
पर एक दिन हमने देखा
कि बाघ मरा हुआ रखा है
मवेशियों के अस्पताल में
उस दिन उसकी आँखों में बहुत पास से देखा था

कि हम सभी की मौत के जैसे ही
कुछ खाली-सा कर देती है उसकी मौत भी
और उस खालीपन में भरने लगती है
एक खास किस्म की उदासी ।
उस रोज़ किसी ने नहीं कहा था
कि घट रही है उनकी तादात
पर आज जबकि बाघ की जीवन-यात्रा
छूं रही है अपना अन्तिम पड़ाव
तेा आ रहा है समझ 
घट जाने की उस घटना का दर्द भरा मतलब ।
हज़ार की तादात जैसे जैसे कमती जा रही है
ख़त्म होते लग रहे हैं
बाघ ही नहीं
कई किस्से, कई रोमांचक अनुभव
जंगली उदासी को पाटते
निर्भय आँखों के कई अक्स
पापा गाँव छोड़कर कस्बे में रहने लगे हैं
और हम कस्बे से आ गए हैं शहर में
और इस बीच
बाघ जो ज़िन्दा था हमारे आस-पास
पापा के सच और हमारी कल्पनाओं में,
ले रहा है इतिहास के गर्भ में अपनी अन्तिम साँस
हमें रोकना ही होगा इस गर्भपात को
ताकि न कह सके आने वाली पीढ़ी
कि शहरी होना जंगली होना भी नहीं होता ।

आज फिर इन्साफ़ को मिट्‍टी में दफ़नाया गया - उमेश पंत

आज फिर इन्साफ़ को मिट्‍टी में दफ़नाया गया
जमहूरियत की शक्ल का कंकाल फिर पाया गया ।

उनकी सियासत की जदों में क़त्ल मानवता हुई
कहके यही इन्साफ़ है फिर हमको भरमाया गया ।

जिस शख़्स की ग़लती के कारण मिट गई जानें कई
उसको बड़े आदर से उसके देश भिजवाया गया ।

आता है अब भी ज़हन में बच्चा वो मिट्‍टी में दबा
अरसे से हर अख़बार की सुर्ख़ी में जो पाया गया ।

सालों से जो आँखें लगाए आस बैठी थी उन्हें
नृशंसता की हद का यूँ अहसास करवाया गया ।

कैसे हैं ज़ालिम लोग ये सत्ता में जो बैठे हुए
न्याय को जो इस कदर फाँसी पे लटकाया गया ।

शहर में उस दिन बही जो गंध भ्रष्टाचार थी
यूनियन कार्बाईड जिसका नाम बतलाया गया ।

बैठेंगे वो कुछ लोग बस कुछ वर्ष कारावास में
त्रासदी की भूमिका रचते जिन्हें पाया गया ।

जी रहे थे हम के जिसमें, वहम था जनतंत्र का
लोक को यूँ तंत्र के पैरों से रुंदवाया गया ।

तंत्र ही सब कुछ यहाँ है लोक की औकात क्या
इस पुराने सत्य को संज्ञान में लाया गया ।

उनके मंहंगे शौक और सस्ता है कितना आदमी
कल हमें इस आर्थिक पहलू को समझाया गया ।

अन्याय की स्याही से ये लिक्खा हुआ मृतलेख है
कानून का जामा ओढ़ाकर हमको सुनवाया गया ।

तब मरे थे लोग अब टूटा भरोसे का भी दम
इस तरह भोपाल पर भोपाल दोहराया गया ।

काश मैं जीता कुछ दिन - उमेश पंत

काश मैं जीता कुछ दिन
कुछ न होने के लिए ।
कुछ बनने की शर्त को
प्याज के छिलके के साथ
फेंक आता कूड़ेदान में ।
और निश्चिंत होकर
लगाता,
सूरज में रोशनी का अनुमान ।

रोशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाईं पर
और देखता उसे
सुनहला होते ।
हवा के बीच कहीं ढूँढ़ता-फिरता
बेफ़िक्र अपने गुनगुनाए गीत
और सहेज लेता कुछ चुने हुए शब्द
अपनी कविता के लिए ।

मैं आइने में ख़ुद को देखता
कुछ न होते हुए
और बिखर जाता
जैसे हवा बिखर जाती है
मन-माफ़िक ।
आइने में सिमट जाता
ओस की बूँदों-सा
और बदल जाता आईना
दूब के खेत में ।

मेरी आंख बंद होती
मुट्ठी की तरह
और जब हथेली खुलती
वो समय होती
बिखर जाती खेतों में
इफ़रात से ।

तुम्हारा ख़याल ज़हन में - उमेश पंत

तुम्हारा ख़याल
गर्मियों में सूखते गले को
तर करते ठंडे पानी-सा
उतर आया ज़हन में ।
और लगा 
जैसे गर्म रेत के बीच
बर्फ़ की सीली की परत 
ज़मीन पर उग आई हो ।


सपने,
गीली माटी जैसे
धूप में चटक जाती है
वैसे टूट रहे थे ज़र्रा-ज़र्रा
तुम्हारा ख़याल 
जब गूँथने चला आया मिट्टी को 
सपने महल बनकर छूने लगे आसमान ।

तुम उगी
कनेर से सूखे मेरे ख़यालों के बीच
और एक सूरजमुखी
हवा को सूँघने लायक बनाता
खिलने लगा ख़यालों में ।

पर ख़याल-ख़याल होते हैं ।
तुम जैसे थी ही नहीं
न ही पानी, न मिट्टी, न महक ।
गला सूखता-सा रहा ।
धूप में चटकती रही मिटटी ।
कनेर सिकुड़ते रहे
जलाती रेत के दरमियान ।
और ख़याल...?

औंधे मुँह लेटा मैं
आँसुओं से बतियाता हूँ
और बूँद-दर-बूँद 
समझाते हैं आँसू
के संभाल के रखना 
जेबों में भरे ख़ूबसूरत ख़याल
घूमते हैं यहाँ जेबकतरे ।