रविवार, 13 सितंबर 2015

हृदय का मधुर भार - रामचंद्र शुक्ल

हृदय, क्यों लाद लिया यह भार,
किसी देश की किसी काल की छाया का भंडार,
कहाँ लिए जाता हैं, मुझको यह जीवन-विस्तार।

उठते पैर नहीं हैं मेरे, झुक-झुक बारंबार,
झाँका करता हूँ मैं, तेरे भीतर दृष्टि पसार।

अंकित जहाँ मधुरता के हैं, वे अतीत आकार,
जिनके बीच प्रथम उमड़ी थी, जीवन की यह धार,
लगी रहेगी ताक-झाँक यह सब दिन इसी प्रकार।

लिपटा था मधुलेप कहाँ का ऐसा अमित अपार,
उन रूपों में चिपका, जिनकी छाया तक का तार।
संचित हैं, जिन रूपों की यह छाया जीवन-सार,
उनके कुछ अवशेष मिलेंगे बाहर फिर दो-चार।
आशा पर बस, इसी तरह चलता हूँ, हे संसार,
तेरे इन रूख रूपों के कड़वेपन की झार।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें