सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

पुत्र के नाम - केशव

तुम आते हो 
उस मोटर की तरह गाँव 
जिसे अगली सुबह 
शहर लौट जाना है 

रिश्तों का यह पुल 
मिट्टी से बना है 
कभी बनता था लोहे से 

तुम डरते हो 
इस पर गुज़रने से 
पर बेटे 
अपने ही हाथों बनाये से 
डर कैसा 

शहर को
हमने भी देखा है 
उस बुलंदी से 
जिससे हर चीज़ तुम्हें अब 
छोटी दिखाई देती है 

एक वक्त 
हमें भी भेजा था गाँव ने 
शहर की ओर 
उस वक्त 
चूल्हे पर चढ़ी हँडिया में 
चार सेर पानी में 
मक्की के चंद दाने उबलते थे

अब तो सेर भर पानी में 
ढेर दाल उछलती है 
पर शायद 
तुमहारे गैसे के चूल्हे पर 
दाल कुछ ज़्यादा ही उफनती है 

रिश्तों की इस नदी में 
पानी से ज़्यादा 
रेत बहती है 

बेटे 
इतना तो मैं भी समझता हूँ 
गाँव 
       और 
                 शहर 
के बीच की दूरी 
                कील की तरह 
कहाँ 
      गड़ी रहती है।

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