मंगलवार, 3 नवंबर 2015

दशरथ विलाप - भारतेंदु हरिश्चंद्र

कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे । 
किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।

बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। 
इसी के देखने को मैं बचा था ।।

छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत । 
दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।

छिपे हो कौन-से परदे में बेटा । 
निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।

बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते । 
तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।

किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा । 
अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।

गई संग में जनक की जो लली है 
इसी में मुझको और बेकली है ।।

कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर । 
कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।। 

गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ । 
तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।

मेरी आँखों की पुतली कहाँ है । 
बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।

कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो । 
मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।

लगी है आग छाती में हमारे। 
बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।

मुझे सूना दिखाता है ज़माना । 
कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।

अँधेरा हो गया घर हाय मेरा । 
हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।

मेरा धन लूटकर के कौन भागा । 
भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।

हमारा बोलता तोता कहाँ है । 
अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।

कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे । 
अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।

कोई कुछ हाल तो आकर के कहता । 
है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।

हवा और धूप में कुम्हका के थककर । 
कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।

जो डरती देखकर मट्टी का चीता । 
वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।

कभी उतरी न सेजों से जमीं पर । 
वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।

न निकली जान अब तक बेहया हूँ । 
भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।

मेरा है वज्र का लोगो कलेजा । 
कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।

मेरे जीने का दिन बस हाय बीता । 
कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।

कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे । 
न रह जाये हविस जी में हमारे ।।

कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम । 
मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।

मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान । 
हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।

कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे । 
यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।

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