सोमवार, 14 दिसंबर 2015

अब तो कुछ और भी अँधेरा है - 'हफ़ीज़' जालंधरी

अब तो कुछ और भी अँधेरा है
ये मिरी रात का सवेरा है

रह-ज़नों से तो भाग निकला था
अब मुझे रह-बरों ने घेरा है

आगे आगे चलो तबर वालो
अभी जंगल बहुत घनेरा है

क़ाफ़िला किस की पैरवी में चले
कौन सब से बड़ा लुटेरा है

सर पे राही की सरबराही ने 
क्या सफाई का हाथ फेरा है

सुरमा-आलूद ख़ुश्क आँसुओं ने
नूर-ए-जाँ ख़ाक पर बिखेरा है

राख राख उस्तख़्वाँ सफ़ेद सफ़ेद
यही मंज़िल यही बसेरा है

ऐ मिरी जान अपने जी के सिवा
कौन तेरा है कौन मेरा है

सो रहो अब ‘हफीज़’ जी तुम भी
ये नई ज़िंदगी का डेरा है

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