गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

एक जोड़ा दुख - श्रीप्रकाश शुक्ल

दुख अकेले का नहीं होता
सकेले का होता है
और जहाँ ऐसा होता है
वहां दुख एक नहीं 
एक जोड़ा होता है

दुख की तलाश में निकले हए, कवि जी
तुम्हारे दिल में जो फफक है
और दिमाक में भभक
जरा उसे खुरच कर तो देखो

क्या उसके नीचे कुछ ऐसा भी है
जिसे तुम ऊपर से देख सकते हो

क्या वहाँ कुछ ऐसा है 
जहाँ तुम देर तक टिक सकते हो
जहाँ तुम्हारे सपनों की ऊँचाई
तुम्हारे अपनों से ज़्यादा की नहीं होगी

क्या तुमने फुनगियों में कभी बीज के दर्द को महसूस किया है
क्या कभी याद आये हैं उपवन के बीच खिले हुए फूल में 
उस माली के हाथों के नाखून
जिनमें न जाने कितनी मिटटी भरकर वह अपनी ही नसों को पाट रहा होता है

क्या तुमने कभी सूखते चाम के भीतर के मनुष्य को सिसकते हुये देखा है
क्या तुमने कभी बसंत की मादक हवाओं में 
लहराते सरसों के फूलों में
प्रेमगंध से अधिक 
उस मानुषगंध को महसूस किया है
जिसमें श्रमजलस्नात युवतियाँ छोड़ आई हैं 
अपने अपने दुख

यदि ऐसा नहीं है 
तो कवि जी, दुख तलाशने का कोई कारण नहीं है
क्योंकि दुख
सतह पर तैरता हुआ दुख नहीं होता 
वह नयन कोरकों में ठिठके हुए उन बुलबुलों में होता है 
जिसमें तन की हरियाली से ज्यादा
मन के दरकने का दर्द होता है। 

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