सोमवार, 30 नवंबर 2015

आ रहे तुम बनकर मधुमास - गोपाल सिंह नेपाली

आ रहे तुम बन कर मधुमास
और मैं ऋतु का पहला फूल

घने तुम काले-काले मेघ उठे
हो आज बाँच कर दुन्द
और मैं उठा पवन से सिहर
थिरकता धारों पर जल बुन्द
बने तुम गगन गगन मुख चन्द्र
चंद्र की किरण रेशमी डोर
और मैं तुम्हें देखने बना मुग्ध
दो नयन-नयन की कोर
सबल तुम आगे बढ़ते चरण
और मैं पीछे पड़ती धूल

तरुण तुम अरुण किरण का वाण
कठिन मैं अन्धकार का मर्म
मधुर तुम मधुपों की गुंजार और
मैं खिली कली की शर्म
दूर की तुम धीमी आवाज़
गूँजती जो जग के इस पार
रात की मैं हूँ टूटी नींद
नींद का बिखर गया संसार
चपल तुम बढ़ती आती लहर
और मैं डूब गया उपकूल

सुभग तुम झिलमिल-झिलमिल प्रातः
प्रातः का मन्द मधुर कलहास
गहन मैं थकी झुटपुटी साँझ
उतरती तरु कुंजों के पास
सघन तुम हरा-भरा वन कुञ्ज
कुञ्ज का मैं गायक खल बाल
तुम्हारा जीवन मेरा गान
और मेरा जीवन तरु डाल
पुरुष तुम फैला देते बाँह
प्रकृति मैं जाती उन पर झूल

प्रवल तुम तेज पवन की फूँक
फूँक से उठा हुआ तूफ़ान
और मैं थरथर कम्पित दीप
दीप से झाँक रहा निर्वाण
कुशल तुम कवि कुल कण्ठाभरण
और मैं एक तुम्हारा छन्द
जन्म तुम बनने का शृंगार
मरण मैं मिटने का आनन्द
सरल तुम प्रथम बार का ज्ञान
और मैं बार-बार की भूल

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