शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

डूब गया दिन - ओम प्रभाकर

डूब गया दिन
जब तक पहुँचे तेरे द्वारे।

एक धुँधलका छाया ओर-पास
धूप गाँव-बाहर की छूट गई,
छप्पर-बैठक सब बिल्कुल उदास
पगडंडी दरवाज़े टूट गई,

भारी था मन
हम थे काफ़ी टूटे-हारे।

सूना आँगन, सूनी तिद्वारी
तुलसी का चौरा सूना-सूना।
ऐसे सूनेपन में हमें हुआ
ख़ुद साँसें लेते में दुख दूना।

चौका-बासन
छतें, छज्जे सब अँधियारे।

धीरे-धीरे आँचल ओट किए
भीतर से दीप लिए तुम आईं।
संग-संग एक मौन ज्योति-पुंज
संग-संग एक मलिन परछाईं।

सिहरा आँगन
सिहरे हम, सिहरे गलियारे।

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