सोमवार, 7 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ८

नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय । 
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥ 

आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद । 
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥ 

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । 
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥ 

जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम । 
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥ 

दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । 
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥ 

बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात । 
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥ 

जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । 
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ 

फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त । 
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥ 

दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद । 
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥ 

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