सोमवार, 7 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग १०

काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय । 
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥ 

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह । 
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥ 

बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम । 
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥ 

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम । 
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥ 

तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास । 
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥ 

कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव । 
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥ 

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । 
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥ 

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय । 
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥ 

जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय । 
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥ 

कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय । 
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥ 

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