मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ११

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर । 
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥ 

आस पराई राख्त, खाया घर का खेत । 
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥ 

सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार । 
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥ 

सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय । 
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥ 

बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव । 
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥ 

आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय । 
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥ 

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय । 
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥ 

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । 
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥ 

कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । 
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥ 

ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय । 
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥ 

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