गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४४

॥ चेतावनी ॥ 

कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ । 
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ 

कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास । 
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ 

कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस । 
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥ 

कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस । 
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ 

कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । 
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥ 

कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । 
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥ 

कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । 
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ 

कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । 
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥ 

कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । 
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ 

कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव । 
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ 

कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । 
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥ 

कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । 
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥ 

कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । 
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥ 

कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । 
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥ 

कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । 
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥ 

कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । 
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥ 

कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । 
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥ 

कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । 
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ 

कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । 
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥ 

एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । 
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥ 

ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । 
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ४३

आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय । 
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥ 

जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । 
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥ 

पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत । 
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ 

निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । 
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥ 

तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान । 
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥ 

खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर । 
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ 

ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय । 
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥ 

भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट । 
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ 

भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । 
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ 

भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । 
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥ 

और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । 
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥ 

विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । 
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥ 

भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । 
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ 

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । 
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ४२

॥ दासता पर दोहे ॥ 

कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त । 
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥ 

कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय । 
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥ 

सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग । 
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ 

गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास । 
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥ 

लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ । 
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥ 

काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय । 
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥ 

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास । 
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ 

दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन । 
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥ 

दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । 
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥ 

॥ भक्ति पर दोहे ॥ 

भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय । 
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥ 

भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । 
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥ 

भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । 
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥ 

भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय । 
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥ 

भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम । 
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥ 

भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय । 
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥ 

भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश । 
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज । 
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ 

भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय । 
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ 

भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय । 
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥ 

भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय । 
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥ 

गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । 
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥ 

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव । 
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास । 
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार । 
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ 

जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय । 
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥ 

देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । 
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ४१

॥ सेवक पर दोहे ॥ 

सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । 
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ 

तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । 
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ 
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । 
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥ 

अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । 
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥ 

यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । 
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥ 

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । 
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥ 

आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । 
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ 

द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । 
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥ 

उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । 
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥ 

कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर । 
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥ 

गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय । 
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥ 

गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग । 
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ 

यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग । 
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥ 

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत । 
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥ 

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । 
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ 

शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । 
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥ 

कबीर दोहावली -भाग ४0

साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । 
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ 

ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । 
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ 

जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । 
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ 

दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । 
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ 

जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । 
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ 

प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । 
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ 

कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । 
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ 

सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । 
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ 

तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । 
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ 

मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । 
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ 

लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । 
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ 

साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । 
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ 

संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । 
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ 

तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । 
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ 

साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । 
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ 

संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । 
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ 

चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । 
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ 

सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । 
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ 


कबीर दोहावली -भाग ३९

॥ संगति पर दोहे ॥ 


कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । 
दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ 

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । 
कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ 

कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । 
सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ 

मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । 
कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ 

साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । 
कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ 

साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । 
संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ 

साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । 
कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ 

गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । 
मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ 

संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । 
कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ 

भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । 
सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ 

तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । 
काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ 

काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । 
काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ 

कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । 
मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ 

मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । 
कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ 

ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । 
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥

कबीर दोहावली -भाग ३८

कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । 
मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ 

बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । 
मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ 

फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । 
साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ 

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । 
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ 

धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । 
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ 

घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । 
बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ 

॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ 


उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । 
कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ 

अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । 
जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ 

माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । 
तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ 

माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । 
कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ 

उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । 
अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ 

आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । 
यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ 

सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । 
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ 

अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । 
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ 

अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । 
उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥