गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४१

॥ सेवक पर दोहे ॥ 

सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । 
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ 

तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । 
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ 
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । 
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥ 

अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । 
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥ 

यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । 
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥ 

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । 
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥ 

आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । 
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ 

द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । 
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥ 

उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । 
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥ 

कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर । 
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥ 

गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय । 
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥ 

गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग । 
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ 

यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग । 
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥ 

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत । 
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥ 

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । 
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ 

शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । 
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥ 

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