गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४३

आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय । 
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥ 

जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । 
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥ 

पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत । 
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ 

निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । 
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥ 

तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान । 
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥ 

खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर । 
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ 

ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय । 
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥ 

भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट । 
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ 

भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । 
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ 

भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । 
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥ 

और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । 
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥ 

विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । 
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥ 

भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । 
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ 

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । 
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ 

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