गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४0

साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । 
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ 

ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । 
संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ 

जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । 
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ 

दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । 
कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ 

जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । 
ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ 

प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । 
जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ 

कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । 
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ 

सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । 
गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ 

तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । 
तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ 

मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । 
ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ 

लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । 
अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ 

साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । 
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ 

संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । 
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ 

तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । 
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ 

साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । 
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ 

संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । 
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ 

चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । 
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ 

सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । 
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ 


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