गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४२

॥ दासता पर दोहे ॥ 

कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त । 
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥ 

कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय । 
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥ 

सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग । 
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ 

गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास । 
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥ 

लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ । 
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥ 

काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय । 
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥ 

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास । 
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ 

दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन । 
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥ 

दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । 
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥ 

॥ भक्ति पर दोहे ॥ 

भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय । 
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥ 

भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । 
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥ 

भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । 
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥ 

भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय । 
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥ 

भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम । 
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥ 

भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय । 
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥ 

भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश । 
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज । 
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ 

भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय । 
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ 

भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय । 
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥ 

भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय । 
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥ 

गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । 
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥ 

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव । 
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास । 
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार । 
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ 

जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय । 
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥ 

देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । 
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥ 

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