शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

कोयल - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

काली-काली कू-कू करती,
जो है डाली-डाली फिरती!
       कुछ अपनी हीं धुन में ऐंठी 
       छिपी हरे पत्तों में बैठी
जो पंचम सुर में गाती है
वह ही कोयल कहलाती है|
        जब जाड़ा कम हो जाता है 
        सूरज थोड़ा गरमाता है 
तब होता है समा निराला 
जी को बहुत लुभाने वाला
         हरे पेड़ सब हो जाते हैं 
         नये नये पत्ते पाते हैं|
कितने हीं फल औ फलियों से
नई नई कोपल कलियों से
         भली भांति वे लद जाते हैं
         बड़े मनोहर दिखलाते हैं
रंग रंग के प्यारे प्यारे 
फूल फूल जाते हैं सारे|
         बसी हवा बहने लगती है 
         दिशा सब महकने लगती है
तब यह मतवाली होकर 
कूक कूक डाली डाली पर
         अजब समा दिखला देती है
         सबका मन अपना लेती है|
लडके जब अपना मुँह खोलो
तुम भी मीठी बोली बोलो
          इससे कितने सुख पाओगे
          सबके प्यारे बन जाओगे|

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