शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

शिक्षा का उपयोग - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

शिक्षा है सब काल कल्प-लतिका-सम न्यारी;
कामद, सरस महान, सुधा-सिंचित, अति प्यारी।
शिक्षा है वह धारा, बहा जिस पर रस-सोता;
शिक्षा है वह कला, कलित जिससे जग होता।
है शिक्षा सुरसरि-धार वह, जो करती है पूततम;
है शिक्षा वह रवि की किरण, जो हरती है हृदय-तम।
क्या ऐसी ही सुफलदायिनी है अब शिक्षा?
क्या अब वह है बनी नहीं भिक्षुक की भिक्षा?
क्या अब है वह नहीं दासता-बेड़ी कसती?
क्या न पतन के पाप-पंक में है वह फँसती?
क्या वह सोने के सदन को नहीं मिलाती धूल में?
क्या बनकर कीट नहीं बसी वह भारत-हित-फूल में?
प्रतिदिन शिक्षित युवक-वृंद हैं बढ़ते जाते;
पर उनमें हम कहाँ जाति-ममता हैं पाते?
उनमें सच्चा त्याग कहाँ पर हमें दिखाया?
देश-दशा अवलोक वदन किसका कुम्हलाया?
दिखलाकर सच्ची वेदना कौन कर सका चित द्रवित;
किसके गौरव से हो सकी भारतमाता गौरवित।
अपनी आँखें बंद नहीं मैंने कर ली हैं;
वे कंदीलें लखीं जो कि तम-मधय बली हैं।
वे माई के लाल नहीं मुझको भूले हैं।
सूखे सर में जो सरोज-जैसे फूले हैं।
कितनी आँखें हैं लगीं जिन पर आकुलता-सहित;
है जिनकी सुंदर सुरभि से सारा भारत सौरभित।
किंतु कहूँगा काम हुआ है अब तक जितना;
वह है किसी सरोवर की कुछ बूँदों-इतना।
जो शाला कल्पना-नयन-सामने खड़ी है;
अब तक तो उसकी केवल नींव ही पड़ी है।
अब तक उसका कल का कढ़ा लघुतम अंकुर ही पला;
हम हैं विलोकना चाहते जिस तरु को फूला-फला।
प्यारे छात्र समूह, देश के सच्चे संबल,
साहस के आधार, सफलता-लता-दिव्य-फल,
आप सबों ने की हैं सब शिक्षाएँ पूरी;
पाया वांछित ओक दूर कर सारी दूरी।
अब कर्म-क्षेत्र है सामने, कर्म करें, आगे बढ़ें;
कमनीय कीर्ति से कलित बन गौरव-गिरिवर पर चढ़ें।
है शिक्षा-उपयोग यही जीवन-व्रत पालें;
जहाँ तिमिर है, वहाँ ज्ञान का दीपक बालें।
तपी भूमि पर जलद-तुल्य शीतल जल बरसे;
पारस बन-बन लौहभूत मानस को परसें;
सब देश-प्रेमिकों की सुनें, जो सहना हो वह सहें;
उनके पथ में काँटे पड़े हृदय बिछा देते रहें।
प्रभो, हमारे युवक-वृंद निजता पहचानें;
शिक्षा के महनीय मंत्र की महिमा जानें।
साधन कर-कर सकल सिध्दि के साधन होवें;
जो धब्बे हैं लगे, धौर्य से उनको धोवें।
सब काल सफलताएँ मिलें, सारी बाधाएँ टलें;
वे अभिमत फल पाते रहें, चिर दिन तक फूलें-फलें।

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