गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४६

कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय । 
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥ 

दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि ।
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥

दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥

यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥ 

यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥

जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय । 
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥

मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान । 
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥ 

महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय । 
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥ 

ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥ 

कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥

कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय । 
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥ 

मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास । 
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥ 

ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर । 
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥ 

इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ । 
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥ 

जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र । 
जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥ 

मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय । 
मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥ 

मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय ।
अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥ 

दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥ 

तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय । 
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥ 

या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि । 
चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥ 

तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥ 

डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार । 
डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥ 

भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय । 
भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥ 

भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।
जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥ 

काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात । 
सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥ 

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