गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ४५

मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । 
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥ 

कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय । 
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥ 

कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । 
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥ 

कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । 
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥ 

हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । 
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥ 

आज काल के बीच में, जंगल होगा वास । 
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥ 

ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । 
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥ 

पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । 
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ 

आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत । 
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥ 

आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल । 
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥ 

कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय । 
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥ 

सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग । 
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ 

ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । 
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥ 

ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय । 
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥ 

ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल । 
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥ 

पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय । 
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥ 

मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । 
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥ 

घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । 
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥ 

हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार । 
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ 

पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । 
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ 

पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । 
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥ 

कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि । 
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥ 

यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ । 
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥ 

कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । 
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ 

जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । 
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ 

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