गुरुवार, 10 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ५१

॥ उपदेश ॥ 

काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय । 
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥ 

काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय । 
अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥ 

लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान । 
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 892 ॥ 

खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम । 
चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 893 ॥ 

खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान । 
लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान ॥ 894 ॥ 

गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह । 
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥ 

देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह । 
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह ॥ 896 ॥ 

कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह । 
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥ 

देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह । 
बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥ 

सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक । 
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥ 

कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय । 
साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥ 
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार । 
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥ 901 ॥ 

या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत । 
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥ 902 ॥ 

कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर ।
खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर ॥ 903 ॥ 

सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान । 
निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥ 904 ॥ 

घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥ 905 ॥ 

क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥ 906 ॥

कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ |
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ ||907||

प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय |
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ||908||

माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर |
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर ||909||

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर |
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ||910||

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद |
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ||911||

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर |
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ||912||

साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय |
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय ||913||

सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार |
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार ||914||

जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं |
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं ||915||

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ |
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ||916||

तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय |
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय ||917||

बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि |
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ||918||

ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ||919||

लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी |
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी ||920||

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय |
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय ||921||

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं |
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं ||922||

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