मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २0

जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान । 
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥ 

ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं । 
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥ 

जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप । 
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥ 

जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग । 
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥ 

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । 
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥ 

जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार । 
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥ 

जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय । 
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥ 

झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद । 
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥ 

जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस । 
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥ 

जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार । 
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें