मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २३

क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात । 
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥ 

राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं । 
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥ 

बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । 
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ 

ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव । 
दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥ 

सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग । 
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥ 

कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष । 
स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥ 

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । 
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ 

तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । 
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ 
 
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । 
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ 
 
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । 
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥ 
 
कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । 
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ 
 
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । 
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ 

बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । 
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥ 

यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं । 
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥ 

अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां । 
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥ 

इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं । 
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥ 

अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि । 
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥ 

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त । 
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥ 

जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ । 
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥ 

कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त । 
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥ 

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