क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात ।
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥
बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार ।
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥
ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥
कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥
कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥
बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥
यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥
अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥
अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥
बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार ।
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥
ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥
कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥
कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥
बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥
यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥
अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥
अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥
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