मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग १८

कागा काको घन हरे, कोयल काको देय । 
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥ 

कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर । 
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥ 

कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि । 
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥ 

कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ । 
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥ 

कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । 
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥ 

कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव । 
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥ 

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । 
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥ 

कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । 
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥ 

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । 
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥ 

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । 
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें