मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३३

जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय । 
कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥ 

गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप । 
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥ 

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । 
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥ 

बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय । 
कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥ 

गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग । 
कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥ 

गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर । 
नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥ 

कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला । 
गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥ 

॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥ 


शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । 
कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥ 

हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय । 
ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥ 

ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक । 
जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥ 

शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय । 
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥ 

स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय । 
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥ 

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । 
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥ 

सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय । 
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥ 

देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल । 
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥ 

॥ भक्ति के विषय में दोहे ॥ 


कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय । 
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥ 

कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय । 
गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥ 

जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात । 
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥ 

चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं । 
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥ 

हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह । 
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥ 

झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह । 
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥ 

कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार । 
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥ 

कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय । 
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥ 

पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज । 
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥ 

कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार । 
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥ 

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