मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३६

निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह । 
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥ 

मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान । 
जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥ 

और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय । 
स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥ 

जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं । 
डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥ 

इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय । 
सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥ 

शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय । 
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥ 

कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव । 
साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥ 

सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत । 
मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥ 

कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं । 
बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥ 

बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय । 
साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥ 

बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय । 
साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥ 

एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ । 
अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥ 

जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय । 
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥ 

उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग । 
यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥ 

तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल । 
कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥ 

तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल । 
साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥ 

ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर । 
तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥ 

आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं । 
लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥ 

जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि । 
जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥ 

कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं । 
पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥ 

सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और । 
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥ 

सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । 
सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥ 

संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय । 
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥ 

मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त । 
भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥ 

दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव । 
येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें