मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग १६

कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय । 
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥ 

एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय । 
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 ॥ 

कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय । 
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥ 

कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय । 
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥ 

कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय । 
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥ 

कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय । 
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥ 

को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय । 
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥ 

कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । 
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥ 

काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं । 
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥ 

काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ । 
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥ 

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