मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग ३0

नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि । 
जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥ 
कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित न कोइ । 
गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥ 

हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ । 
ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥ 

सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं । 
आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥ 

क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि । 
तुम देखत ओगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥ 

सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार । 
पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥ 

॥ गुरु के विषय में दोहे ॥ 

गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान । 
बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥ 

गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम । 
कीट न जाने भृगं को, गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥ 

कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय । 
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोय ॥ 434 ॥ 

गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त । 
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥ 

गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय । 
कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥ 


जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर । 
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥ 

गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान । 
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥ 

गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट । 
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥ 

गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं । 
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥ 

लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय । 
शब्द तुरी बसवार है, छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥ 

गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर । 
आठ पहर निरखता रहे, गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥ 

गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त । 
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥ 

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष । 
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥ 

गुरु मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं । 
उन्हीं कूँ परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥ 

गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और । 
सुख सम्पति की कह चली, नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥ 

सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान । 
शब्द सहै सम्मुख रहै, निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥ 

ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास । 
गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥ 

अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान । 
ताको जम न्योता दिया, होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥ 

जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय । 
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥ 

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