मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २२

माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश । 
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥ 

भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग । 
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ 

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । 
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥ 

मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ । 
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥ 

माली आवत देख के, कलियान करी पुकार । 
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥ 

मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय । 
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥ 

ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं । 
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥ 

या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ । 
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥ 

राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास । 
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥ 

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ 

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । 
जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥ 

संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । 
कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥ 

साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय । 
ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ 

साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय । 
चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥ 

संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । 
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ 

साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय । 
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥ 

लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं । 
एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥ 

हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह । 
सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥ 

ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । 
आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥ 

ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह । 
निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥ 

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