मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २८

बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक । 
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥ 

स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि । 
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥ 

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात । 
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥ 

एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार । 
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥ 

कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर । 
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥ 

सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत । 
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥ 

गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह । 
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥ 

निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह । 
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥ 

जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ । 
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥ 

काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि । 
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥ 

राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई । 
तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥ 

पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ । 
चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥ 

फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई । 
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥ 

हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि । 
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥ 

जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं । 
ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥ 

कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास । 
जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥ 

क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान । 
वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥ 

काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम । 
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥ 

दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि । 
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥ 

कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि । 
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥ 
कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ । 
अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥ 

भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग । 
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥ 

रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ । 
दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥ 

कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ । 
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥ 

मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई । 
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥ 

मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह । 
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥ 

संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ । 
साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥ 

कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत । 
काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥ 

कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ । 
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥ 

जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द । 
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ 

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