मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २५

सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । 
तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ 

हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । 
मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ 

कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । 
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ 

कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । 
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ 

त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । 
जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ 

कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । 
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ 

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । 
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ 

कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । 
सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ 

कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास । 
पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥ 

बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक । 
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥ 

कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह । 
जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥ 

माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ । 
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥ 

करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड । 
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥ 

कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ । 
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥ 

मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग । 
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥ 

पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद । 
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥ 

जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल । 
पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥ 

काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ । 
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥ 

प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच । 
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥ 

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । 
जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥ 

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