मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग १५

आस पराई राखता, खाया घर का खेत । 
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥ 

आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक । 
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥ 

आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद । 
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥ 

आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । 
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥ 

आया था किस काम को, तू सोया चादर तान । 
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥ 

उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । 
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥ 

उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय । 
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥ 

अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय । 
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥ 

एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार । 
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥ 

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए । 
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥ 

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