मंगलवार, 8 सितंबर 2015

कबीर दोहावली -भाग २६

खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून । 
देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥ 

साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ । 
जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥ 

तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय । 
कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥ 

जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास । 
सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥ 

जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम । 
राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥ 

कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ । 
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥ 

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि । 
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥ 

मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम । 
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥ 

मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ । 
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥ 

कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ । 
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥ 

उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान । 
धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥ 

जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग । 
पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥ 

जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु । 
ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥ 

कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै । 
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥ 

कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम । 
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥ 

कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । 
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ 

कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई । 
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥ 

माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । 
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥ 

मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । 
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ 

हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत । 
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ 

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